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3.2.14

तुम असीम

रूप तुम्हारा, गंध तुम्हारी, मेरा तो स्पर्श मात्र है 
लक्ष्य तुम्हारा, प्राप्ति तुम्हारी, मेरा तो संघर्ष मात्र है

तुम असीम मैं छुद्र विन्दु सा तुम चिरंजीवी मैं छन्भंगुर
तुम अनंत हो मैं सीमित हूँ वट सामान तुम मै नव अंकुर
तुम अगाध गंभीर सिन्धु हो मै चंचल से नन्हीं धारा
तुम में विलय कोटि दिनकर, मै टिमटिम जलता बुझता तारा

दृश्य तुम्हारा दृष्टि तुम्हारी, मेरी तो तूलिका मात्र है
सृजन तुम्हारा सृष्टि तुम्हारी, मेरी तो भूमिका मात्र है

भृकुटी-विलास तुम्हारा करता सृजन-विलय सम्पूर्ण सृष्टि का
बन चकोर मेरा मन रहता, अभिलाषी दो बूँद वृष्टि का
मेरे लिए स्वयं से हटकर क्षणभर का चिन्तन भी भारी
तुम शरणागत वत्सल परहित हेतु हुए गोवर्धन धारी

व्याकुल प्राण-रहित वंशी में तुमने फूँका मंत्र मात्र है 
राग तुम्हारा, ताल तुम्हारी, मेरा तो बस यंत्र मात्र है.


..........................................................................................घनश्यामचन्द्र गुप्त

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