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12.4.14

जो तुम आ जाते JO tum aa jate



जो तुम आ जाते एक बार ।


कितनी करूणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग

गाता प्राणों का तार तार

अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार

जो तुम आ जाते एक बार ।




हंस उठते पल में आद्र नयन

धुल जाता होठों से विषाद

छा जाता जीवन में बसंत

लुट जाता चिर संचित विराग


आँखें देतीं सर्वस्व वार

जो तुम आ जाते एक बार ।
..................................................................


.................................................................Mahadevi Verma

15.3.14

पतझड़ की शाम (Hai Yeh patjhad ki shaam sakhe)

है यह पतझड़ की शाम, सखे!

नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात 
जीवन-डाली को थाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!

लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली,
कू-कू कर कोयल मांग रही
 नूतन घूँघट अविराम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!

नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में हैं कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी; 
यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!


............................................................

...................................................................हरिवंश राय बच्चन

13.3.14

अँधेरे का दीपक (Andhere Ka Deepak)

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था ,
भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था,
        स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
        स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
        प्रथम उशा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा
        थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
        आँख से मस्ती झपकती, बातसे मस्ती टपकती,
        थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकुराना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिसमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
        एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
        भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय वे साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
        दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
        एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
        नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
        किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
        है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
...................................................................................

...................................................................................Harivansh Rai Bachchan

10.3.14

शक्ति और क्षमा (shakti aur kshama)

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-सक्षम
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो 
उसका क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल हो 

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की
बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसी का
जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है 
....................................................................

- ......................................................................- रामधारी सिंह दिनकर

8.3.14

कर्मवीर (Karmaveer)

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नही
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।

जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।

व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।
........................................................................

..............................................................Ayodhya Singh Upadhyaya "Hariaudh", 

4.3.14

नीड़ का निर्माण फिर-फिर (Need ka Nirman fir fir)



नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,


रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,



रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,


हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;



बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!




क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;



एक चिड़िया चोंच में तिनका
लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!



नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!




नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
...........................................................

.........................................................Harivansh Rai Bachchan, 

28.2.14

अरुण यह मधुमय देश



अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को 
मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर 
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर 
मंगल कुंकुम सारा।।

लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए 
समझ नीड़ निज प्यारा।।

बरसाती आँखों के बादल 
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की 
पाकर जहाँ किनारा।।

हेम कुंभ ले उषा सवेरे 
भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब
जग कर रजनी भर तारा।।
..........................................................................


.................................................................................- जयशंकर प्रसाद

11.2.14

रात यों कहने लगा मुझ से गगन का चाँद

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !

उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते ।

आदमी का स्वप्न ? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो ?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद ! मुझको जानता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नए घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है ।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर ख़बर कर दे,
“रोज़ ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे ।”


...................................................................
........................................................................रामधारी सिंह "दिनकर"

10.2.14

हम पंछी उन्मुक्त गगन के (Hum Panchhi Unmukt Gagan Ke)

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
..............................................................................


..............................................................................ShivMangal Singh Suman

5.2.14

तुम्हारे चरण (tumhare paon meri god me)
















ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में !
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में !
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में !

रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !

ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !

ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !
......................................................................
.......................................................................................धर्मवीर भारती

3.2.14

तुम असीम

रूप तुम्हारा, गंध तुम्हारी, मेरा तो स्पर्श मात्र है 
लक्ष्य तुम्हारा, प्राप्ति तुम्हारी, मेरा तो संघर्ष मात्र है

तुम असीम मैं छुद्र विन्दु सा तुम चिरंजीवी मैं छन्भंगुर
तुम अनंत हो मैं सीमित हूँ वट सामान तुम मै नव अंकुर
तुम अगाध गंभीर सिन्धु हो मै चंचल से नन्हीं धारा
तुम में विलय कोटि दिनकर, मै टिमटिम जलता बुझता तारा

दृश्य तुम्हारा दृष्टि तुम्हारी, मेरी तो तूलिका मात्र है
सृजन तुम्हारा सृष्टि तुम्हारी, मेरी तो भूमिका मात्र है

भृकुटी-विलास तुम्हारा करता सृजन-विलय सम्पूर्ण सृष्टि का
बन चकोर मेरा मन रहता, अभिलाषी दो बूँद वृष्टि का
मेरे लिए स्वयं से हटकर क्षणभर का चिन्तन भी भारी
तुम शरणागत वत्सल परहित हेतु हुए गोवर्धन धारी

व्याकुल प्राण-रहित वंशी में तुमने फूँका मंत्र मात्र है 
राग तुम्हारा, ताल तुम्हारी, मेरा तो बस यंत्र मात्र है.


..........................................................................................घनश्यामचन्द्र गुप्त

1.2.14

ऐ मेरे प्यारे वतन



ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान।
तू ही मेरी आरजू तू ही मेरी आबरू तू ही मेरी जान ॥धृ॥
तेरे दामन से जो आये उन हवा-ओंको सलाम
चूम् लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आये तेरा नाम
सबसे प्यारी सुबह तेरी सबसे रंगीं तेरी शाम

तुझपे दिल् कुर्बान ॥१॥

माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्ही सी बेटी बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझको उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल कुर्बान॥२॥

छोड़ कर तेरी ज़मींको दूर आ पहुंचे हैं हम
फिर भी है येही तमन्ना तेरे जर्रों की कसम
हम जहां पैदा हुये उस जगह ही निकले दम
तुझ पे दिल कुर्बान ॥३

29.1.14

ऐसी लागी लगन मीरा हो गयी मगन


है आँख वो जो श्याम का दर्शन किया करे,
है शीश जो प्रभु चरण में वंदन किया करे ।
बेकार वो मुख है जो व्यर्थ बातों में,
मुख है वो जो हरी नाम का सुमिरन किया करे ॥
हीरे मोती से नहीं शोभा है हाथ की,
है हाथ जो भगवान् का पूजन किया करे ।
मर के भी अमर नाम है उस जीव का जग में,
प्रभु प्रेम में बलिदान जो जीवन किया करे ॥

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन ।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी ॥

महलों में पली, बन के जोगन चली ।
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी ॥

कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी ।
बैठी संतो के संग, रंगी मोहन के रंग,
मीरा प्रेमी प्रीतम को मनाने लगी ।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी ॥

राणा ने विष दिया, मानो अमृत पिया,
मीरा सागर में सरिता समाने लगी ।
दुःख लाखों सहे, मुख से गोविन्द कहे,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी ।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी ॥
............................................................................

..............................................................................Anup Jalota

28.1.14

Ek Boond



 ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।

 थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।

सोचने फिर फिर यही जी में लगी।

आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

 दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा।

 में बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।

या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।

चू पडूँगी या कमल के फूल में।

 बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।

 वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।

 एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।

 वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते

जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।

किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।

बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।
...........................................................................................
                               .............................................  Ayodhya Singh Upadhyaya "Hariaudh"

26.1.14

He Sharde Maa, He Sharde Maa



हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां


तू स्वर की देवी है संगीत तुझसे,

हर शब्द तेरा है हर गीत तुझसे,

हम हैं अकेले, हम हैं अधूरे,

तेरी शरण हम, हमें प्यार दे मां

हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां...


मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी,

वेदों की भाषा, पुराणों की बानी,

हम भी तो समझें, हम भी तो जानें,

विद्या का हमको अधिकार दे मां

हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां....


तु श्वेतवर्णी, कमल पे बिराजे,

हाथों में वीणा, मुकुट सर पे साजे,

मन से हमारे मिटा दे अंधेरे,

हमको उजालों का संसार दे मां


हे शारदे मां, हे शारदे मां अज्ञानता से हमें तार दे मां....






He Sharde Maa, He Sharde Maa
agyanta se hame taarde Ma

25.1.14

YEH ISHQ NAHI AASAN

मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है,
कागज़ की हवेली है,बारिश का ज़माना है. 

क्या रस्म-ए-मोहब्बत है,क्या शर्त-ए-ज़माना है,
आवाज़ भी ज़ख़्मी है और गीत भी गाना है. 

टूटा हुआ दिल अपना यूँ उनको दिखाना है,
भीगी हुई आँखों से एक शेर सुनाना है. 

उस पार उतरने की उम्मीद नहीं रखना,
कश्ती भी पुरानी है,तूफ़ान भी आना है. 

नादानी मेरे दिल की फिर इश्क़ की ज़द पर है,
फिर आग का दरिया है,फिर डूब के जाना है. 

ये इश्क़ नहीं आसान बस इतना समझ लीजिये,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है.

.......................................................................................Anonymous

24.1.14

Saare Jahan Se Achcha

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा

ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा

यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।
...........................................................................

................................................................................- मुहम्मद इक़बाल

23.1.14

Pushp Ki Abhilasha

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पर जावें वीर अनेक ।।

.......................................................................

............................................................. माखनलाल चतुर्वेदी

22.1.14

Agneepath



अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी
मांग मत! मांग मत! मांग मत!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

तू न थकेगा कभी,
तू न थमेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु, स्वेद, रक्त से
लथ-पथ, लथ-पथ, लथ-पथ,
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

...........................................................................................

................................................................................................हरिवंशराय बच्‍चन


Vriksh hon bhale khade,
Hon ghane, hoh bade,
Ek patra chhah bhi
Maang mat! Maang mat! Maang mat!
Agneepath! Agneepath! Agneepath!

17.1.14

Honton Se Chholo Tum

quote by Melanie M Koulouris

Audio (Honton Se Chholo Tum)

होठों से छूं लो तुम  मेरा गीत अमर कर दो
बन जाओ मीत मेरे, मेरी प्रीत अमर कर दो

ना उम्र की सीमा हो, ना जन्मों का हो बंधन

जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन
नयी रीत चलाकर तुम  ये रीत अमर कर दो

आकाश का सूनापन  मेरे तनहा मन में

पायल झनकाती तुम आ जाओ जीवन में
साँसे देकर अपनी संगीत अमर कर दो

जग ने छिना मुझ से, मुझे जो भी लगा प्यारा

सब जीता किये मुझ से, मैं हर पल ही हारा

तुम हार के दिल अपना, मेरी जीत अमर कर दो
..............................................................................
....................................................................................Jagjit Singh

English

Honthon Se Chulo Tum
Meraa Git Amar Kar Do
Ban Jaao Mit Mere
Meri Prit Amar Kar Do



Jana Gana Mana


राष्ट्रगान

जन गण मन अधिनायक जय हे

भारत भाग्य विधाता

पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा

द्राविड़ उत्कल बंग

विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा

उच्छल जलधि तरंग

तव शुभ नामे जागे

तव शुभ आशिष मागे

गाहे तव जय गाथा

जन गण मंगल दायक जय हे

भारत भाग्य विधाता

जय हे जय हे जय हे

जय जय जय जय हे!!
...................................................................................

.................................................................. रवीन्द्रनाथ ठाकुर



English translation


Rabindranath Tagore
The following translation (edited in 1950 to replace Sindh with Sindhu as Sindh after partition was allocated to Pakistan), attributed to Tagore, is provided by the Government of India's national portal

16.1.14

Vande Mataram




वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां
मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां
मातरम् ।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।

कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।।
वन्दे मातरम् ।

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलां
अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।।
वन्दे मातरम् ।

श्यामलां सरलां
सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।।
वन्दे मातरम् ।।

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.................................................................................... Bankim Chandra Chattopadhyay


English Translation By Sri Aurobindo 

Mother, I salute thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.

Khawab jo

Audio ( Khwab jo )

Jo Tujhe Jagayee
Neend Teri Udayein
Khawab Hai Sacha Wahi 

Neendon Mein Jo Aaye
Jisee To Bhool Jaye
Khawab Woh Sacha Nahi

Khawab Ko Raag De
Neend Ko Aag De
O O O
Angraron Ko Jaaye
Angraron Ko Jaaye
Koyalon Sa Jo Gaaye
Khawab Hai Sacha Wohi 

Lehareein Jo Uthaye
Paniyon Ko To Uthaye

Khawab Hai Sache Wohi

Khawab Ko Raag De
Neend Ko Aag De
O O O

Manzilon Pe Tauyhaar Hai

Lekin Woh Haar Hai 
Kya Khusi Apno Ke Bin
Hai Adhuri Har Jeet Bhi 
Sargam Sangeet Bhi

Adhura Apno Ke Bin
Khwabon Ke Badal 
Chane Do Lekin 
Risthon Ki Lok Bacha Ke Barasna

Kheti Hai Hawaien 
Chum Le Gagan Ko 
Pankho Ko Khol Chodna Tarasna
Lyricsmasti.Com
Khawab Ko Raag De
Neend Ko Aag De

Na Na Na Na Na
Ra Ra Ra Ra Ra

La Ra Ra La La La Ra Ra 

Khawab Ko Raag De
Neend Ko Aag De

Khawab Ko Khawab Ko Raag De
Neend Ko Aag De
Aag De
O O O
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...........................................................................Prasoon Joshi