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15.1.14

वर दे




वर दे


वर दे! 

वीणावादिनि वरदे! 

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव 

भारत में भर दे!




काट अंध उर के बंधन स्तर 


बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर 

कलुष-भेद - तम हर प्रकाश भर 

जगमग जग कर दे!




नव गति, नव लय, ताल, छंद नव, 


नवल कंठ, नव जलद - मंद्र रव, 

नव नभ के नव विहग-वृन्द को 

नव पर नव स्वर दे!


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.................................................................................सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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